Monday 5 November 2018

नदी का गीत

बहुत लम्बा होता है
सफ़र नदी का।
पथरीले सहराओं से
शिला, पर्वतों,
कन्द्राओं से,
समतल मैदानों,
घाटियों से बहते हुए
किसी तट की तलाश में,
आसान नहीं हो सकता
रहना सदा प्रवाहमान!

आसान नहीं हो सकता
थक कर टूटना,
बिखर जाना
हज़ार लहरों में
किसी अजनबी तट से
टकराकर!
और ख़ुद को फिर समेट लेना।

जब भी अपने अंदर
महसूस करती हूं
आवेग
गतिशीलता का
लगता है
बहुत कठिन होता होगा
नदी होना,
ठहराव की चाहत में
तय करते रहना,
सफ़र तन्हाई का।

जब भी तुम से टकराकर
ख़ुद को पाती हूं
साहिल से लगता,
हो जाती हूं
किसी नौका सी,
जो प्रवाह से ले आयी है
साथ साहिल पर
स्मृतियाँ आवेग की
और उम्मीद
ठहरने, बसने,
साहिल से लगने की।

अकसर सोचती हूं
पूछूं तुम से,
देखा है तुमने,
यूं किसी नदी को
नौका हो जाते?

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