Saturday, 8 September 2018

उम्र रसीदा

उसी सड़क के
इक चौराहे पर
आज फिर आ मिला
मुझसे
एक मुश्किल मौज़ू,
कि जिसपर एक
आसान नज़्म कहनी है।
सड़क के दोनो तरफ़
अटा है कीचड़
रात बहुत दिलकश
लग रही थी बारिश।
डटे हैं ढेर मलबे के
सड़क के तोड़े जाने से,
सड़क और कुछ पुराने
मकानात
जो अपनी तयशुदा हदों से
बढ़ आये थे आगे।
इस दौर में उस दौर की
मक़बूलियत कम है।
मगर सिग्नल की इस
दीवानावार भीड़ में भी
इस क़दर कोहराम में,
कि दौड़े जा रहे हैं बस
सब, बेमुरव्वत,
एक ज़ईफ़ ख़ातून का हाथ थामे
पूरी मज़बूती से
और फिर भी नज़ाकत से,
एक निहायत शगुफ़्ता-चाल,
बुज़ुर्ग
पार कर रहे हैं सड़क,
अपनी ही रफ़्तार से,
किसी गुज़रे ज़माने की सड़क हो ज्यूं!
उधर फ़ुटपाथ से
उठ्ठे कबूतर उड़ चले,
बेसाख़्ता,
सिग्नल खुला,
निहायत ख़ूबसूरत यह समां!

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