शब्द तुम्हारे
तुम जैसे ही,
कभी बरहना ख़ंजर से,
उखड़े उखड़े,
लहजा भी कुछ कुछ तुम सा,
ठहरा ठहरा,
नि:स्वार्थ प्रेम सा अनासक्त,
निष्काम कर्म सा,
संतप्त,
जैसे ख़ारिज किये
बेमुरव्वतन,
हर ख़ासो-आम को!
और कभी यूं
बस नज़रों के
मिलने भर से,
पिघला पिघला,
शहद से शीरीं,
अतीक़तर हर इत्र से,
लतीफ़ ज़िक्रो-बयाँ के हर लुत्फ़ से,
रौशन रौशन
रक़शन्दा चराग़ों सा,
फूलों के नर्म सीनों में
तितलियों की नाज़ुक परवाज़ की सी,
हलचल सा!
बारिश की पहली बूंद सा पहला पहला,
सुबह की पहली किरण सा धुला धुला केसरिया!
तुम!
तुम जैसे ही,
कभी बरहना ख़ंजर से,
उखड़े उखड़े,
लहजा भी कुछ कुछ तुम सा,
ठहरा ठहरा,
नि:स्वार्थ प्रेम सा अनासक्त,
निष्काम कर्म सा,
संतप्त,
जैसे ख़ारिज किये
बेमुरव्वतन,
हर ख़ासो-आम को!
और कभी यूं
बस नज़रों के
मिलने भर से,
पिघला पिघला,
शहद से शीरीं,
अतीक़तर हर इत्र से,
लतीफ़ ज़िक्रो-बयाँ के हर लुत्फ़ से,
रौशन रौशन
रक़शन्दा चराग़ों सा,
फूलों के नर्म सीनों में
तितलियों की नाज़ुक परवाज़ की सी,
हलचल सा!
बारिश की पहली बूंद सा पहला पहला,
सुबह की पहली किरण सा धुला धुला केसरिया!
तुम!
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