Tuesday, 28 August 2018

अल्फ़ाज़

1
अल्फ़ाज़ नहीं बाँध सकते
अपने कमज़र्फ़ वजूद में
जज़बात को,
तुम्हारा मुझे देख कर
मुस्कराना,
मेरा कभी हँस पड़ना,
कभी नज़रे झुका लेना!
नहीं समेटा जा सकता
लफ़्ज़ो-बयाँ में
हमारी धड़कनों का
बढ़ना
एक दूसरे के आस पास,
नहीं ज़ाहिर किया जा सकता
हर्फ़ो-इबारत में
हमारे बीच की उस मुक़द्दस ख़ामोशी को,
कि जिसमे
गलने-घुलने लगते हैं
ख़ुद अल्फ़ाज़,
हर्फ़ दर हर्फ़,
नेस्तोनाबूद होने लगती हैं
ज़बानें, भाषाएं,
बेमायनी होने लगता है
हर माध्यम!
छूटने लगते हैं सिरे
हर सीखे-सिखाए के!

2
अल्फ़ाज़
महज़ आईना हैं,
जिनसे परे
वही तुम, वही मैं,
वही हम हैं,
कभी मुर्दा परछांईयों से
बंजर ज़मीं पर,
कभी ताज़े पानी की
किसी झील में
बनते बिखरते मनोरम बिम्ब से,
कभी किसी साफ़गो आईने पर
बरहक़ किसी अक्स से!
हम,
वक़्त की सतह पर
किसी ख़ामोश तरंग, किसी हिलोर से!

3
तुम अकसर घबरा कर,
पास बुला लेते हो मुझे,
मैं अकसर डर कर
सिमट जाती हूं तुम में।
हम जैसे तैसे चुरा लेते हैं
अपने लिये
थोड़ा सा वक़्त
ख़ुद को
यह इतमिनान दिलाने के लिये,
कि सब कुछ ठीक ठिकाने पर है
हमारे दरमियान
इस ख़राबे का हिस्सा हो कर भी।
हम समेटते हैं
अपनी बातें
ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ में,
इसलिये
कि बताया गया है
कि अल्फ़ाज़
कारगर होते हैं।
हम ख़ुद को ग़र्क़ कर लेते हैं
रंगों, सुरों, तस्वीरों, गीतों में,
यह सोचकर कि ख़ूबसूरती
ख़ूबसूरत बना सकती है रिश्तों को!
काग़ज़ी दस्तावेज़ों की सी
गारंटी की तरह!
मगर सच तो यह है
कि हमारे दरमियान
धड़कता यक़ीन ही
आख़िरी अहद है,
वह जो
रंगों, सुरों और अल्फ़ाज़ के
हर दायरे से
बरी है,
और आज़ाद है,
वक़्त और फ़ासलों के
हर तक़ाज़े से!

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