Friday, 17 August 2018

अमृता

श्रद्धान्जलि तुम्हारी स्मृतियों को अमृतमयी! चिर वाँछित, चिर आराध्य, चिर अगोचर, चिर अप्राप्य! भीगी बयार सी उन्मादक तुम, निरन्तर हृदय तंत्र के तारों पर मालकोश सी, मालवा सी! तुम्हारी कामना के भार से बोझिल मेरी भीगी पलकें, आत्म-विस्मृत्ता को निरन्तर एतत अस्त प्रेम के भीगे दिलासे देती रहीं। पर न जाने क्यूं तुम्हारी खोज में हर क्षण स्वयं को क्षार करते भी यही लगता रहा, तुम्हे न पा सकूंगा! जब भी तुम्हारी ओर आया, जब भी तुम्हे छूने को हाथ बढ़ाया, तुम, हर समय, हर दौर के सिद्ध स्थापित प्रतिमानों के पार, अनिश्चय के कुहासे में कहीं दूर, और दूर किसी किरण सी, धरा पर पड़ती, बिखरती, लुप्त होती नज़र आयीं। और चुम्बक लौह सा वह आकर्षण भी रोक न पाया तुम्हे, न जाने क्या विमुखता थी, कि मैं भी अनमने ही थाम लेता हाथ तुम्हारा, मगर! प्रियतमा, आज भी कलप्ना तुम्हारी समेट लाती है भावों को उस एक ही शब्द पर, 'अंतरतम', फिर क्यूं हे अंतरतम, विरह की कलप्ना मात्र से कांप उठने वाला मेरा मन आज तुम्हारे वियोग में भस्म नहीं हो रहा! क्यूं तुम्हे जाता हुआ देख कर भी क्रोध, कटुता, कष्ट कुछ महसूस ही न हो सका! आश्चर्य नहीं मगर दुख है मैं कच न हुआ, मेरी देवी, देवयानी बन मुझे तुम श्राप भी न दे सकीं।

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