Friday, 17 August 2018
तुम
न जाने क्यूं
हर ख़ूबसूरत शय,
तुमसी लगती है मुझे।
फूल, बादल, तितलियाँ,
और चिड़ियों का चहचहाना।
न जाने क्यूं दरख़्तों के ये पुर सुकून साये,
तुम्हारी बातों से लगते हैं,
न जाने क्यूं यकायक
मद्धम पड़ जाता है
सड़क पर
बेतहाशा दौड़ती गाड़ियों का शोर,
तुम्हारी याद आते ही!
न जाने क्यूं
बेवजह घुलने लगते हैं किनारे,
तल्ख़ साहिलों के,
खुलने लगते हैं सिरे,
सब ज़मीनी शामियानों के,
और मिलने लगते हैं
शिकस्ता हौसलों को
पंख परवाज़ के!
न जाने क्यूं
लगने लगा है
बहुत गहरी हैं जड़ें
इन दरख़्तों की,
कि जो होती हुई
तुम से
मुझ तक
आ रही हैं,
कि जैसे मैं ज़मीं हूं
और तुम
मुझपर फैला
नीला आकाश!
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