Tuesday, 28 August 2018

अक्सर मैं

छूटने लगते हैं मुझसे मेरे अल्फ़ाज़ अकसर, अकसर हावी होने लगता है मेरे अहसासात पर शोर, इस शहर का। अक्सर खिड़की के बाहर रक़्स करती दिलकश परछाँइयाँ जिनकी ओर मैं बरजस्ता रुजू हो जाती हूं बार बार, घुलने लगती हैं कमरे के अन्दर के शोर में। न जाने क्यूं अक्सर मैं हो जाती हूं यह शहर, घुलने लगती हूं मैं इस शहर के शोर में, मगर तुम ...

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