Tuesday, 28 August 2018
मेरे नौनिहाल!
कितना मुश्किल है
मुस्कराना,
किसी को देख कर,
कोई अन्जान,
सड़क पर
यूं ही
नज़रों के मिल जाने पर,
ख़ासकर तब
जब उसके चेहरे पर
तनी हों अनगिनत लकीरें,
भय, अनिश्चय और अविश्वास की!
तब जब
उम्र का तवील सफ़र
नक़्श हो
उसके माथे की
सिलवटों में
दर्द की इबारत में!
मगर मेरे नौनिहाल,
तुम!
जो जाल में घिरी
गेंदों पर ख़ुद को फेंक कर
खिलखिला पड़ते हो!
तुम जो
मुस्कराते हो
कुत्तों, कबूतरों, तितलियों को भी
देख कर!
तुम जो खिल उठते हो
फूल सा,
पुचकारे, चुमकारे जाने पर!
कोई तरकीब ईजाद की जाए
तुम्हे इस ख़राबे से
महफ़ूज़ रखने की,
जहाँ मुस्कराहटें
बहुत मंहगी हैं,
और आंसू बहुत सस्ते!
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