Friday, 3 August 2018

नस्रो-नज़्मे इंतिशार

फिर किसी मक़तल की
सुर्ख़ ज़मीं,
फिर तक़ाज़ा-ए-वफ़ा,
फिर जुनूने-शौक़ की
सरगर्मियाँ,
फिर इम्तिहाने-शौक़!
तमन्ना के सराबों में
धुंएं की तहरीर,
वजूदे-फ़ानी।
फिर बिस्तर-ए-ख़ाक पर
सर-ए-तस्लीम ख़म
सजदा-ए-शुक्र में!
फिर सफ़र तन्हाई के सहराओं का,
फिर वही अहरामे-सायल,
फिर हुक्मे-सफ़र
सादिर, सरे-ग़रीबुल-वतन!
यूं भी दरवेशों के आस्ताने होते हैं,
घर नहीं होते।
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हज़ार इबारते-सितम
नक़्श,
एक जिस्मे-फ़ानी पर!
एक पैराहने-ख़ाकी,
आस्ताना-ए-रूहे-बेकरां!
तक़ाज़ा-ए-ख़ुद-शनासी
रू-ब-रू-ए-बेबसी!
ज़ीस्त - एक बेलफ़्ज़ बयाने-इंतशार!
और अपनी कम-नसीबी का फ़ैसला
रक़ीब के हाथों!
हासिले-कुन,
जहाने-ख़राब!
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ऐ शजरे-नूर,
सिदरतुल-मुन्तहा,
गिरफ़्त-ए-सलासिल में,
हर मौजे-फ़रात
क़ैदे-हयात में हर ज़र्रा-ज़र्रा
वजूदे-बशर,
ख़्वाहिशे-इंतिशार में
क़तरा-क़तरा,
लहू-ए-आदम,
तड़प रहा है
फिर रगों में,
तिनका-तिनका
उजड़ रहे हैं
आशियाने,
जामा-ए-अल्हाम में फिर
हर बयाने-दिले-ख़ाना-ख़राब!
यूं तो हर सांस है तेरी सना,
तकल्लुफ़-बर-तरफ़
ऐसा तमाशबीन तू!


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