Tuesday, 31 July 2018

सुनो

पयामो-मेराज का
हर दारोमदार,
एक लफ़्ज़े-इक़रा पर!
सुनो।
सुनो कि क्या पता
फिर बिखरने लगे
किसी अज़ाने-बिलाली से
फ़लक पर रंगो-नूर!
सुनो कि फिर उठने लगे
किसी सितार से
विरह की मृदुल तान!
बोल शबद के,
बह निकले कोई दास्तां
मुहब्बत की,
किसी कलीसे के
धड़कते दिल से,
चारागरी फिर किसी दस्ते मोजिज़ की!
सुनो कि वही रब्बे-क़ुरबत
रब्बे-फ़ुरक़त भी है,
वही रब्बे तलब, रब्बे अता भी है!
सुनो कि उठ रही है
मेरे दिले-नाशाद से भी,
वही फ़रियाद हिकमत की!
हर सफ़े-अम्बिया
ख़म किये सरे-तस्लीम
उसी ख़ैरुल बशर की बारगाह में!
न कोई दावा-ए-मसीहाई,
न कोई दाग़े-नदामत!
शिकस्ता इरादों की
स्याह राख के ग़ुबार के पार,
उसी काग़ज़ी पैराहन में,
एक मैं हूं,
एक तुम हो,
और हमारी राहों का यूं मिलना!
सुनो, तुम मुझसे बात क्यूं नहीं करतीं?

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