कई रातों की जागी आंखों में,
कई सहराओं के राही सी थकन!
हब्स के सर्द, स्याह मक़तल में,
नीम-शफ़ीक़ रफ़ाक़तों के
रेंगते साये,
ग़म की बेरब्तियों के रक़्स में
डूबा डूबा,
दिल,
किसी मसीहा-ए-रम-ख़ुर्दा का
उजड़ा आस्ताना!
एक सदा-ए-इस्तिग़ासा,
वह जो एक शाख़ सी थी,
ज़िन्दगी की ..
जैसे फिर ईसा
किसी सलीब पर
दोहराता हुआ रम्ज़-ए-हयात।
ज्यूं जवाबन
फिर चाक हुआ
सीना काबे का!
जैसे यकायक
ताबिन्दातर ख़ुर्शीद-ओ-क़मर,
और छंटने लगा कोहरा,
ख़ुद-ब-ख़ुद
उजागर होती राहे-ज़ीस्त ..
ज़िन्दगी में फिर आमद
ज़िन्दगी की!
कई सहराओं के राही सी थकन!
हब्स के सर्द, स्याह मक़तल में,
नीम-शफ़ीक़ रफ़ाक़तों के
रेंगते साये,
ग़म की बेरब्तियों के रक़्स में
डूबा डूबा,
दिल,
किसी मसीहा-ए-रम-ख़ुर्दा का
उजड़ा आस्ताना!
एक सदा-ए-इस्तिग़ासा,
वह जो एक शाख़ सी थी,
ज़िन्दगी की ..
जैसे फिर ईसा
किसी सलीब पर
दोहराता हुआ रम्ज़-ए-हयात।
ज्यूं जवाबन
फिर चाक हुआ
सीना काबे का!
जैसे यकायक
ताबिन्दातर ख़ुर्शीद-ओ-क़मर,
और छंटने लगा कोहरा,
ख़ुद-ब-ख़ुद
उजागर होती राहे-ज़ीस्त ..
ज़िन्दगी में फिर आमद
ज़िन्दगी की!
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