Friday, 3 August 2018

तुम

रौशन हो उठीं
अनगिनत तरतीबें चराग़ों की
शिकस्ता ख़्वाहिशों के
तारीक क़ैदख़ानों में,
तुम्हारे एक लम्स से!
खुलने लगीं ज़जीरें
रस्मो-रवायत की
कड़ी-दर-कड़ी,
हर्फ़-दर-हर्फ़,
नफ़रमाबरदार होने लगे
ख़ूनो-ख़ाक में सने फ़रमान
क़त्लगाहों के!
नहासिल आसमानों की
हदों के मुक़ाबिल
फैलते शहपर ख़्वाबों की परवाज़ के!
हैरतो-हंगामा-ए-फ़िराक़ो-विसाल,
सरगश्तगी-ए-जुनूने-फ़ना,
गर्दो-ग़ुबारे-ग़मे-दौरां,
.. ख़ुमारे सुब्हे-शबे-वस्ल!
और तुम्हारा मुझे फिर पुकार लेना,
'सीमीं अख़्तर'!

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