Thursday, 30 January 2020

जुम्मन चच्चा

'बड़ी मुन्नी, हमें भूल तो नहीं जाएंगी?', जुम्मन ने कँपकपाती आवाज़ में पूछा। नसरीन उसके झुर्रियों भरे चेहरे को एकटक देख रही थी। प्लेटफ़ॉर्म की भीड़ और रेलगाड़ी में चढ़ते उतरते लोगों का यह हुजूम, इनका पागल कर देने वाला शोर! मगर नसरीन को दिखाई दे रहा था तो बस वह चेहरा, वे उदास आँखें, उसे सुनाई दे रही थी तो बस वह एक आवाज़। कितनी ही यादें थीं!

'दिल्ली जाते ही बुलवाएंगे आपको चच्चा' नसरीन ने जुम्मन के कंधे पर शफ़क़ताना हाथ रखते हुए कहा।
'क्वाटर मिलते ही?'
वह मुस्करा दी। उसकी आँखें सहसा ही भर आयीं। उसे कॉलेज के ऑडिटोरियम में गूंजते अलमास के अल्फ़ाज़ याद हो आए, 'तुमसे भी दिल फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के!'

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'चच्चा! चच्चा!', बेबी और नसरीन बाहर सहन में खड़ी पुकार रही थीं। नन्ही गुड्डी दालान में पड़ी चटाई के पीछे खड़ी झाँक रही थी।
जुम्मन ने मुड़कर देखने से पहले, आस पास देखना ज़रूरी समझा।
'हमसे कह रही हैं मुन्नी साहब?', उसने डरते हुए पूछा।
'हाँ, आपसे। यहाँ तो आईए', नसरीन ने कहा।
'मम्मी तह लहीं हैं चाय बन लही है, पी तल जाईएगा।' गुड्डी ने तुतलाकर कहा।
सब हंस दिये।
'गोश्त भी आना है', नसरीन ने कहा। 'सब्ज़ी के लिए निकलें तो मम्मी से पूछ लीजिएगा।'
'जी, बड़ी मुन्नी'
जुम्मन की आँखें भर आईं। तीस बरस की पुलिस की सर्विस में पहली दफ़ा ऐसी ड्यूटी पड़ी थी जहाँ साहब के बच्चों ने उसे ' ए जुम्मन' या 'सरऊ', 'बुढ़ऊ', या 'हे जुम्मनवा' कह कर नहीं पुकारा था।

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'यह आप मुझे रोज़ कॉलेज छोड़ने क्यूं आते हैं चच्चा', नसरीन ने साइकिल के पैडल छोड़ते हुए कहा। 'आप जानते हैं मैं आठवीं क्लास से स्कूल साइकिल से जा रही हूं, अकेले!'
'इत्ते बखत खाली होते हैं, और क्या करें', जुम्मन कह कर मुस्करा दिया।
'कहाँ ख़ाली होते हैं! गाय को सानी लगाते हैं, बरामदा बुहारते हैं, भाई और अंजुम को स्कूल छोड़ते हैं, पापा की युनिफ़ॉर्म तैयार करते हैं। और मेरी ड्रेस, मेरे जूते क्यूं पॉलिश करते हैं आप? आपसे कितनी दफ़ा कहा है!'
'वह तो आपकी वर्दी के हैं न बड़ी मुन्नी। आप एनसीसी में अफ़सर जो हैं!'
'उसे तो आपने मना कर दिया था, चन्द्रभूषण के लड़के को'
'हाँ, हमारे सामने अपने जूते फेंक कर कहा था उसने, ये भी कर दे। हम क्यूं करते। हम सरकार के मुलाज़िम हैं, किसी के ज़ाती नौकर नहीं हैं! हमने भी कह दिया, हम नहीं करेंगे। यह हमारा काम नहीं'।
'हाँ, मगर फिर पंद्रह दिन ससपेंड रहे और ड्यूटी बदल दी गई', नसरीन ने जुम्मन को चिढ़ाते हुए कहा।
'तब क्या हुआ। अच्छा ही हुआ साहब के पास ड्यूटी पड़ गई। आप लोग तो सब एकदम अपने बच्चों जैसे लगते हैं हमें।'
दोनो मुस्करा दिए।

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'बड़ी मुन्नी आप चलिए, हम आते हैं', जुम्मन ने साइकिल के पैडल मार कर कहा।
'फिर!' नसरीन ने आँखें बन्द कर के न की मुद्रा में सिर हिलाया। 'जिस दिन पापा को पता चल गया!'
'नहीं चलेगा', जुम्मन ने मोड़ से मुड़ते हुए कहा, 'गुड्डी बिटिया से कहिएगा आज अपने दो आने से मूंगफली न ख़रीदे, कुछ और ले लेवें!'

'बड़ी मुन्नी! बड़ी मुन्नी!' आधे घंटे बाद जुम्मन घर के बाहर खड़ा पुकार रहा था।
'आपा आछा बहन जी घल पलने दई ऐं', गुड्डी ने चटाई के पीछे से छिपकर कहा।
'अच्छा। ये रेवड़ी, मूंगफली ले लो। बड़ी मुन्नी से कहना आज नाके पर दबिश दी थी।'
'त्या दी थी?'
'तुछ नहीं। तल बतावेंगें', जुम्मन ने हंस कर कहा। गुड्डी खिलखिला कर हंस दी।
'चलें, हमारी साँस फूल रही है। बेगम साहब पूछें तो कह देना बाहर नीम नीचे सुस्ता रहे हैं'।

'चच्चा, चाय ले लीजिए'। नसरीन ने पुकार कर कहा। मग़रिब की अज़ान हो रही थी। 'पी कर फ़ौरन निकल जाइए, वरना आपकी क़ज़ा हो जाएगी'।
'तौबा, इस्तिग़फ़ार', बरामदे में खड़ी दद्दा बीबी बोलीं, 'अल्लाह न करे! बेचारा बाल बच्चों वाला है!'
'हाहाहाह', जुम्मन सहसा हंस दिया। 'हाँ, आप लोग तो पढ़ते ही क़ज़ा हैं!'
'तौबा है लड़कियों', दद्दा बीबी बड़बड़ाती हुई ग़ुस्ल ख़ाने की तरफ़ चल दीं। सब लोग हँस दिए।

'नाके पर ताश वाली पार्टी थी आज', जुम्मन ने चाय पीते हुए कहा। 'चार आदमी थे। छापा पड़ते ही ऐसा सब छोड़ छाड़ के भागे सुसरे!'
'आपको सुब्ह ही पता था, तभी आप वर्दी की टोपी साथ लाए थे!'
जुम्मन मुस्करा दिया।
'कैसे पता चल जाता है आपको?'
'अर्दली सही, हैं तो पुलिस ही बिटिया'।

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'जुम्मन चच्चा कहाँ हैं आजकल?' नसरीन ने बेबी से पूछा।
'नहीं रहे' बेबी ने उदासी से कहा, 'गाँव चले गये थे। रिटायरमेंट ले कर।'
'ओह!इन्ना लिल्लाहे! ... मगर अचानक कैसे?'
'बहरे हो गए थे बेचारे। सुन नहीं पाते थे। कुछ दिन पुलिस लाइन के अस्पताल में दवा ईलाज करवाया मगर फ़ायदा नहीं हुआ।'
'तो अलाहबाद, बनारस कहीं दिखाते! गाँव क्यूं चले गए?'
'अलग क़िस्म के आदमी थे, आपा। अलग, अपनी ही दुनिया में रहते थे। कहते थे उनके गाँव में बच्चे गूंगे बहरे पैदा होते हैं, इसीलिए पैदा होते ही डहर में डाल दिये जाते हैं। बच्चा जब डर कर रोता है तो आवाज़ और सुनाई खुल जाती है।'
'तो?'
'तो जब जुम्मन चच्चा पैदा हुए, इनकी अम्मा गुज़र गईं। सब लोग उनके कफ़न दफ़न में लग गए और इन्हे डहर में डालना भूल गए। नतीजतन ये कई साल बाद बोले। और इन्हे हमेशा यह वहम रहा कि एक दिन बहरे हो जाएंगे, सो हो गए।'
'तुम लोग बताते तो उन्हे दिल्ली ही बुलवा लेते'। नसरीन ने उदास होते हुए कहा।
'हाँ, दर अस्ल आपके दिल्ली चले आने के बाद वे एकदम ख़ामोश रहने लगे थे। शुरू में तो कहते थे बड़ी मुन्नी मुझे दिल्ली बुलवाएंगी, मगर जब आपने नहीं बुलवाया तो बेचारे मायूस हो गए।'
'हमें क्या पता था वो वाक़ई आना चाहते थे! तुम लोगों ने बताया भी नहीं'
'क्या बताते आपा। आप यहाँ नौकरी की जुस्तजू में लगीं थीं, गाँव में उनकी कुछ ज़मीन थी, सोच कर गए थे कि वहीं खेती बाड़ी करेंगे, मगर लड़कों ने साथ रखा नहीं। उस्मान था न उनके गाँव का, कुलभूषण भय्या के यहाँ अर्दली, उसने बताया, अलग एक कुटिया डाल कर रहते रहे कुछ दिन, फिर ख़तम हो गए।'
नसरीन की आँखें भर आयीं।
'हम भी क्या करते' उसने रुंधे गले से कहा, 'रेवन्यू में पोस्टिंग मिल रही थी, अंडमान में, वहाँ पापा ने जाने नहीं दिया तो युनिवर्सिटी ज्वाइन कर ली। यहाँ बुलाते भी तो इस दो कमरे के मकान में कहाँ रखते उन्हे! कॉलेज की नौकरी में क्वाटर मिलता ही नहीं'।

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