Sunday, 12 January 2020

ज़ालिम

याद रखो,
ऐसा भी होगा अकसर
कि तुम्हे पा कर अकेला
या कमज़ोर,
कर के ज़ुल्म तुम पर
रात के अंधेरे में,
मुंह पर ढाँपकर ढाटा,
ज़ालिम
छिप जाएगा कहीं,
किसी अंधेरी ग़ार,
किसी तंग कोठरी में,
अपने चार हमख़यालों के साथ! 

अपनी शिनाख़्त
करवाने के बदले,
ज़िम्मेदारी लेने के बदले
जो किया उसकी,
वह कहेगा,
वही मज़लूम है!
पकड़े जाने पर कहेगा
कि उसे मजबूर किया गया,
जो हुआ वह करने पर!
कहेगा
वह आहत हुआ
क्यूंकि तुम बहुत ज़ोर ज़ोर से रोए,
और बदनाम किया तुमने उसे!
कि तुम्हें परवाह नहीं
घर, समाज, देश की इज़्ज़त की,
वरना तुम समझते
क्यूं किया गया ज़ुल्म,
क्यूं रहना चाहिए ख़ामोश
ज़ुल्म होने पर,
क्यूं क़ुबूल कर लेना चाहिए
ज़ुल्म को,
सर झुका कर,
अपनी वाजिब सज़ा समझ!

ऐसा भी होगा अकसर
कि पुलिस और क़ानून,
देश और समाज
सब मान लेंगे
इसी को सच!
कि खा कर तरस,
ज़ालिम पर,
तुम भी उसे ही
मान लोगे मज़लूम
और कर दोगे माफ़!

मगर याद रखो,
रात के अंधेरे में
किए गये ज़ुल्मों को
दिन के उजाले में
दे दी गई माफ़ी ही
सबसे ख़तरनाक होती है!

उतनी ही
जितनी वह ख़ामोशी,
जो ज़ुल्म होने के बाद
इख़्तियार कर ली जाती है!

क्यूंकि ज़ुल्म होता देखकर,
ख़ामोश रहना,
माफ़ कर देना,
और शह देता है
ज़ालिम को,
कि वह फिर लौटे
और दल बल के साथ,
अगली बार,
हर बार!

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