Wednesday 27 February 2019

जंग

जंग की सरगर्मियाँ हैं,
और शाख़ें मुन्तज़र!
वो परिन्दे जो घरों को लौट कर आने को हैं ..
सर्द आहें, ज़र्द चेहरे,
बेकल-ओ-बेचैन दिल,
औरतें वो, मर्द जिनके जंग पे जाने को हैं ..

झूठ, नफ़रत, बदगुमानी, बदहवासी, बेबसी,
है अज़ल से बस यही जंगों का हासिल,
और हम,
आज फिर ख़ुद पर इसी आसेब को लाने को हैं!

हम भी न समझें सियासत गर जुनूने-जंग की,
हम भी ख़ुद को झोंक दें इस खेल में,
तो कौन फिर,
पूछने वाला रहेगा इन सियासतदाओं से,
झोंपड़ों में भी ग़रीबों के भला खाने को है?

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